Wednesday, March 25, 2009

अमरत्व से ज्योति तक

क्या है नियति की परिणीती
क्या है जीवन की इति ,
तोड़ो इन परम्पराओ को
छोड़ दो यह व्यर्थ की रीति ,
जीवन का लक्ष्य यहीं है
छूना इस नील आकाश को
पाना उस अदभुत प्रकाश को ,
अस्तित्व के धरातल पर
फैलाओ ज्ञान की ज्योति
संन्घर्ष मैं ही छुपा है हर्ष
पतन मैं ही गुप्त है उत्कर्ष
संवेदनाओं से परिपूर्ण है
जीवन का संगीत
भावनाओं से ओत प्रोत है
जीवन व्यतीत ,
उस ज्ञान की ज्योति
मैं ही होगा तुम्हारा अंधकार दूर
हर्षमय हो जाएगा तुम्हारा यह संसार
दूर हो जाएगा तुम्हारा हाहाकार ,
व्यर्थ का न होगा प्रतिकार
आदर के साथ तुम्हारा होगा सत्कार
दूर हो जायेंगे तुम्हारे सारे व्यविकार
ज्योति मैं ही इति
इसी मैं सबकी परिणीती ,
ज्योति मैं ही है इति
इसी मैं सबकी परिणीती

पीयूष चंदा

8 comments:

  1. heavy duty poem dude.. but good work.. :)

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  3. great job piyush. the selection of words is awsome man.ineed to check hindi dictionary

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  4. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  5. *मैं भी चाहता हूँ की हुस्न पे ग़ज़लें लिखूँ*
    *मैं भी चाहता हूँ की इश्क के नगमें गाऊं*
    *अपने ख्वाबों में में उतारूँ एक हसीं पैकर*
    *सुखन को अपने मरमरी लफ्जों से सजाऊँ ।*


    *लेकिन भूख के मारे, ज़र्द बेबस चेहरों पे*
    *निगाह टिकती है तो जोश काफूर हो जाता है*
    *हर तरफ हकीकत में क्या तसव्वुर में *
    *फकत रोटी का है सवाल उभर कर आता है ।*


    *ख़्याल आता है जेहन में उन दरवाजों का*
    *शर्म से जिनमें छिपे हैं जवान बदन *
    *जिनके **तन को ढके हैं हाथ भर की कतरन*
    *जिनके सीने में दफन हैं , अरमान कितने *
    *जिनकी **डोली नहीं उठी इस खातिर क्योंकि*
    *उनके माँ-बाप ने शराफत की कमाई है*
    *चूल्हा एक बार ही जला हो घर में लेकिन *
    *सिर्फ़ मेहनत की खायी है , मेहनत की खिलाई है । *


    *नज़र में घुमती है शक्ल उन मासूमों की *
    *ज़िन्दगी जिनकी अँधेरा , निगाह समंदर है ,*
    *वीरान साँसे , पीप से भरी धंसी आँखे*
    *फाकों का पेट में चलता हुआ खंज़र है ।*

    *माँ की छाती से चिपकने की उम्र है जिनकी*
    *हाथ फैलाये वाही राहों पे नज़र आते हैं ।*
    *शोभित जिन हाथों में होनी थी कलमें *
    *हाथ वही बोझ उठाते नज़र आते हैं ॥ *


    *राह में घूमते बेरोजगार नोजवानों को*
    *देखता हूँ तो कलेजा मुह चीख उठता है*
    *जिन्द्के दम से कल रोशन जहाँ होना था*
    *उन्हीं के सामने काला धुआं सा उठता है ।*


    *फ़िर कहो किस तरह हुस्न के नगमें गाऊं*
    *फ़िर कहो किस तरह इश्क ग़ज़लें लिखूं*
    *फ़िर कहो किस तरह अपने सुखन में*
    *मरमरी लफ्जों के वास्ते जगह रखूं ॥*


    *आज संसार में गम एक नहीं हजारों हैं*
    *आदमी हर दुःख पे तो आंसू नहीं बहा सकता ।*
    *लेकिन सच है की भूखे होंठ हँसेंगे सिर्फ़ रोटी से*
    *मीठे अल्फाजों से कोई मन बहला नही सकता । । *

    *Kavyadhara Team*
    *(For Kavi Deepak Sharma)*
    *http://www.kavideepaksharma.co.in*
    *http://kavideepaksharma.blogspot.com*
    *http://sharyardeepaksharma.blogspot.com*

    *( उपरोक्त नज़्म काव्य संकलन falakditpti से ली गई है )*
    *All right reserved with poet.Only for reading not for any commercial use.*

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