Tuesday, June 23, 2009

हार नही स्वीकार

हार नही मानूंगा मैं
दूंगा मुह तोड़ जवाब परिस्थतियों को मैं
हार नही मानूंगा मैं
है चाहे शरीर टूटे
चाहे कराह उठे बदन
इस पत्थर पर लकीर
बनाकर रहूँगा मैं
हार नही मानूंगा मैं
मन की बात सुनकर
सुनूंगा अंतर्मन की बात मैं
कहेगा अगर आराम भी तो
नही लूँगा विराम मैं
इस भुझती ज्वाला को
और भडकाऊंगा मैं
हार नही मानूंगा मैं
ख्वाहिशो की पतंग की डोर
को स्वताप जलाकर सुद्रढ़ करूँगा मैं
थक रही इन टांगो मैं
नया जोश भरूँगा मैं
हार नही मानूंगा मैं
अकेला हू तो कोई संताप नही करूँगा मैं
इस जोत को जोश बना के चलूँगा मैं
नही झुकाउंगा सर
उस नीच पापी हताशा और आलस के सामने
निरंतर कठिन परिश्रम और चपलता होंगे मेरे अस्त्र
त्राहि त्राहि मचा दूंगा इनकी धरा पर
कर दूंगा इनको नष्ट त्रस्त पथ्ब्रष्ट
हार नही मानूंगा मैं
करूँगा अपना कल्याण
और सफल नही होने दूंगा इन आसुरी प्रवार्तियो को अपने मंतव्य मैं
हू इन्सान जानवर तो नही
जो डर जाऊ हार मान लू
हार नही मानूंगा मैं
नष्ट करूँगा इन सबको मैं
अस्त्र नही करूँगा विसर्जित मैं
हार नही मानूंगा मैं
पुनर्जीवित करूँगा स्वतः को मैं
स्वीकार नही यह हार मुझे
हार को जीत की जय माल नही पहनाऊंगा मैं
विकराल रूप धारण कर
करूँगा कल पर वार
और हराऊंगा हार को एक ही वार मैं
हार नही मानूंगा मैं
हार नही मानूंगा मैं

Followers