Wednesday, April 6, 2016

मृगतृष्णा

विस्तृत   है यह संसार
पर परिसीमित की अभिलाषा है
आवेेग  है  बहुतेर
परन्तु  उसको संचित  
करने की अभिलाषा है

मानव मस्तिष्क  की कल्पना
का क्या कहना
जो  है  उसे छोड़कर अनुराग की कल्पना  है

निर्दिष्ट हो चुका  है वो संयोग
परन्तु संदेह है  अतुलनीय

यह समर्पित प्रेम है
या निर्जीव संवेदना मैं आदर की परिकल्पना

भाव अनेक मनुष्य अनेक
पर सब भावो का एक ही निचोड़

कुछ पाने की आस है
कुछ मिलने की आकांक्षा है

वो मिल जाए तो जीवन रास मिल जाये
अन्यथा  व्यर्थ है यह प्रेम
अनर्थ है ये जीवन

जरा दिलऐ  नादान  को सँभाल ऐ  महजबीन
जो हैं वो तुझ मैं ही है
 किसी और मैं नहीं

ये आकाश का विस्तार  नहीं
तेरा नूर है जो
जिसमे खिल  गया है  सारा  जहाँ


खुदा गवाह  है
खुद से खुदी  की पहचान  कर

खुदा रहमदिल है
बस  तू अपने  ऊपर  ऐहतराम  कर


द्वारा

पीयूष  चंदा

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