Friday, June 10, 2011

ज़िन्दगी

खामोश  आशियानों  की दरख्तों  पर 

कभी   किसी  दूर  किनारे से ,

कोई  आवाज़  सुनाई देती है 

तो  खुद से ही कुछ सवाल  कर बैठता  है यह दिल, 

इंसान की महफ़िल  मैं तलाश  करता है 

इंसानों को यह दिल ,

कुछ बातों मैं ही 

बातों का स्वरुप तलाशता हू  मैं 

तन्हाई मैं भी तन्हाई खोजता हू  मैं 

भीड़  मैं भी अनजान बातों  से 

तन्हा रहता है यह दिल 

खुद खुदी से बेपरवाह यह दिल 

खुदा से ईल्ताजाह है  हो जाओ बेपर्दा उस दिल से 

मालूम तो हो की 

आखिर माजरा क्या है 

रंगीन कांच सी लगती है यह ज़िन्दगी 

और मजाल  ये 

टूटने पर दर्द हो तो तो बुजदिल  कहता  है यह ज़माना 

आईने  मैं खुद को ही देखने से ताज्जुब होता है अब 

खुदी से खुद बहुत पीछे रह गयी है  ज़िन्दगी 

पर तलाश ज़ारी है खुद को पाने की


पियूष  चंदा 

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